संपादक-शारदा शुक्ला
इस्लाम धर्म में मूर्ति पूजा वर्जित है।वहाॅ ‘तौहीद’यानी एकेश्वरवाद है।अल्लाह ही पूजनीय है और इसमें किसी को शामिल नहीं किया जा सकता।जो ऐसा करता है उसे ‘मुशरिक’कहते हैं और विरोध होता है।इस धर्म का वर्तमान स्वरूप में प्रवर्तन पैगम्बर हज़रत मोहम्मद साहब ने किया है।हालाॅकि यह मौलिक या कोई नई चीज़ नहीं थी।इसके पहले इन धर्मावलम्बियों के पैगम्बर इब्राहीम साहब थे और उन्होंने यह धर्म चलाया था।समय के प्रवाह से वह ज्ञान लुप्त हो गया,जैसा कि गीता-ज्ञान के बारे में श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘पूर्व में यह ज्ञान उन्होंने विवस्वान यानी सूर्य को दिया;उन्होंने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु राजा को दिया।समय बीतते यह लुप्त हो गया और अब मैं तुम्हें(अर्जुन को)वही ज्ञान दे रहा हूॅ’।तो प्राचीन इब्राहीमी संस्कृति के लुप्तप्राय हो जाने पर मोहम्मद साहब ने अल्लाह के निर्देश पर उसे पुनर्जीवित किया।यानी इस्लाम उसी पुरातन इब्राहीमी संस्कृति का नव-संस्करण है।
पूरे अरब में पहले मूर्ति पूजा होती थी।स्वयं इब्राहीम साहब के पिता की बुतों(मूर्तियों)की ही दूकान थी।उन्होंने शुरुवात घर से ही की और पिता की दूकान की मूर्तियाॅ तोड़ींथीं।हालाॅकि वे एकदम से मूर्ति पूजा नहीं रोक पाये।वर्तमान की हज प्रक्रिया में सफ़ा और मर्वहःपर्वतों के बीच ‘सई’यानी परिक्रमा की जाती है।यहाॅ इब्राहीम साहब के परवर्ती काल तक में दो बुत रक्खे रहे।परिक्रमा बुत या मूर्ति की ही होती है।दरअसल,एक बार इब्राहीम साहब अपनी पत्नी हाज़रा साहिबा और शिशु इस्माइल को छोड़कर किसी काम से चले गये।बच्चे को प्यास लगी थी और वहाॅ पानी नहीं था;तब पानी की तलाश में वे मोहतरिमा इन पहाड़ों के बीच दौड़ी थीं।अंततः वहाॅ एक चश्मा मिल गया और काम चल गया।इसे ही ‘आब-ए-जमजम’कहते हैं।इसी घटना की याद और श्रद्धा में मुसलमान हज करते समय यहाॅ फेरे लगाते हैं।यहाॅ दो मूर्तियाॅ भी बहुत समय तक रक्खी रहीं।बाद में मोहम्मद साहब के निर्देश पर मूर्तियाॅ हटा दी गईं,कितु फेरे जायज करार दिये गये।अब भी होते हैं।
पूरे अरब में तीन देवियों की पूजा होती थी और मंदिर थे।मक्का के काबा में ऐसा ही था।इनके नाम थे’अल-लात’,’मनात’ और ‘अल-उज्जा’।ये अल्लाह की बेटियाॅ मान्य थीं और शक्ति की प्रतीक तथा रक्षिका व भाग्य संवर्द्धिका के रूप में पूजी जाती थीं।अल्लात ऊॅट पर सवार दिखाई गई हैं।कहीं कहीं तीनों के वाहन सिंह परिलक्षित हैं।मतांतर से -अल-लात’अल्लाह की पत्नी थीं और उनके पुत्र ‘हुबल’ भी देवता और अर्चनीय थे।मोहभ्मद साहब कुरैश सम्प्रदाय से थे और इस वर्ग की पूज्या ‘अल-उज्जा’थीं।काबा की परिक्रमा के समय इस बिरादरी के लोग इन्हीं देवी की स्तुतियाॅ गाते थे।काबा के अतिरिक्त भी मंदिर थे।मक्का से सौ किलो मीटर दक्षिण पूर्व एक पहाड़ी पर स्थित ‘तायफ’शहर में अललात का मंदिर और बड़ी मूर्ति थी।मोहम्मद साहब ने अपने सिपहसालार ‘अबू सूफियान बिन हर्ब’को भेजकर मंदिर और मूर्ति नष्ट करवाया;क्योंकि ये देवियाॅ बहु पूज्या थीं और इस्लाम प्रसार में बाधिका भी।पूजी जो जाती थीं।’हुबल’काबा के मुख्य देवता थे और पैगम्बर ने मक्का पर कब्जे के बाद इस मूर्ति को तुड़वाया।
इसी तरह अपने कुल की आराध्या ‘अल-उज्जा की मूर्ति ‘नख्लाह’भेजकर ‘खालिद बिन वलीदा’से तुड़वाई।हिंदुवों की देवियों के वैसे तो नाना रूप और नाम हैं,किंतु महालक्ष्मी,महासरस्वती और महाकाली तीन विशेष प्रसिद्ध हैं।ये सत् चित और आनन्द की प्रतीक स्वरूपा हैं।
अब काबा में प्रतीक के रूप में ‘संग-ए’असवद’है,जिसे मुस्लिम बन्धु चूमते और श्रद्धा समर्पण करते हैं।काबा में परिक्रमा भी होती है,जिसे ‘तवाफ’या गिर्द घूमना कहते हैं।अन्य किसी मस्जिद में तवाफ नहीं होती है।ऐसे में क्या यह संग’-ए-असवद’मूर्ति मान्य है?स्पष्ट नहीं है।वैसे परिक्रमा वहीं होती है,जहाॅ मूर्ति हो।
रघोत्तम शुक्ल
स्तंभकार
1 comment
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