सम्पादक – शारदा शुक्ला
आश्विन अर्थात् क्वाॅर मास का कृष्ण पक्ष आ गया।इसे ही पितृपक्ष कहते हैं।इसमें यमपुरी।के द्वार खोल दिये जाते हैं;और पितृगण भूलोक में अपने अपने परिवारों में श्रद्धान्वित अर्पण प्राप्त करने हेतु विचरण करते हैं,जो तर्पण और पिण्डदान आदि के माध्यम से पुत्र,दौहित्र या अन्य परिवारीजन द्वारा दिया जाता है।इससे उनकी तृप्ति होती है और वे आशीर्वाद देने की अदम्य क्षमता रखते हैं।
ऐसा न होने पर वे निराश हो जाते हैं और परिवार को पितृदोष लगता है,जिसके विविध कुपरिणाम होते हैं।शास्त्रों में कहा गया है कि’उस परिवार में वीर उत्पन्न नहीं होते,नीरोगता नहीं रहती,लोग अल्पायु होते हैं और श्रेय प्राप्त नहीं होता,जहाॅ श्राद्ध नहीं होता है’।
चूॅकि कृष्ण पक्ष में पूर्णिमा नहीं होती है;अतःजिनके पूर्वज पूर्णिमा को दिवंगत होते हैं,उनका श्राद्ध भाद्रपद पूर्णमासी को किया जाता है।
गरुड़ पुराण के अनुसार यमपुरी पृथ्वी से दक्षिण ओर 86000 योजन दूर है,जहाॅ प्राणी कर्मानुसार तीन मार्गों से पहुॅचता है:अर्चि,धूम और उत्पत्ति-विनाश।मरणोपरांत आत्मा सहित सूक्ष्म शरीर,स्थूल देह से बाहर हो जाता है,जिसमें 27 अवयव होते हैं।वे हैं–पञ्च महाभूतों(पृथ्वी,जल,अग्नि,आकाश,वायु) के अपञ्चीकृत रूप,दसों इंद्रियाॅ,अंतःकरण चतुष्टय,(मन,बुद्धि,चित्त,अहंकार)पञ्च प्राण(प्राण,अपान,व्यान,उदान,समान)अविद्या,काम और कर्म।मोक्ष या पुनर्जन्म होने तक वह जीव इन्ही अवयवों सहित अपनी पूर्व देह के आकार प्रकार से पहचाना जाता है।दमित और अतृप्त आत्माएं अंतरिक्ष में ही भटकती हैं।सुकृती जन उच्च लोकों में और दुष्कृती यमपुर में यातनाएं भोगकर निम्न लोकों में स्थान पाते हैं।अंतरिक्ष में विचरण करने वाली प्रेतात्मावों के लिये भी विभाग नियत है।पूर्ण स्वच्छन्दता नहीं है;जैसा कि रवीन्द्रनाथ टैगोर की परलोक चर्चा में एक आत्मा ने बताया है।यह “रवीन्द्रनाथेर परलोक चर्चा”शाति निकेतन के रवीन्द्र सदन में संरक्षित है।
श्राद्ध और पिण्डदान के लिये सभी सूक्ष्म देहधारी इच्छुक होते हैं और यह निश्चित रूप से करणीय है;अन्यथा पितृगण पतित हो जाते हैं।विश्व के अन्यतम दर्शन ग्रन्थ श्रीमद्भगवद्गीता के अध्यय-1/42 में कहा गया है “पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्त पिण्डोदकक्रियाः।”पिण्ड में जौ,चावल और तिल का प्रयोग होना चाहिये।तर्पण के जल में काला तिल आवश्यक है।श्राद्ध ‘कुतुप’काल में करणीय है;यानी 12 बजे दोपहर से तीन बजे तक।इस काल में ‘रयि’नाम की एक चन्द्र किरण इस अर्पण का तत्व पितृप्राण तक पहुॅचा देती है;इस रश्मि का दूसरा नाम ‘श्रद्धा’भी है।तीन पिण्ड कुशों पर रखना चाहिये।पिता,पितामह और प्रपितामह के लिये।श्राद्धकर्ता को ‘अपसव्य’अवस्था में होना चाहिये;यानी यज्ञोपवीत दाहिने कंधे पर हो।
वराह पुराण के अध्याय-13 व 14 में पितरों व श्राद्ध कल्प का वर्णन है।इसमें एक “पितृगीत”भी है,जिसमें सारांशतः पितृगण कहते हैं कि उन्हें अर्पण करने में श्रद्धा तत्व ही प्रधान है।यदि परिवारीजन सम्पन्न हैं,तो सारा विधि विधान,ब्राह्मण भोजन,दान आदि करें;किंतु ऐसा न होने पर,साधनहीनता की स्थिति में वे तिल मिश्रित जल से ही तृप्त हो जाते हैं।कदाचित सन्तति इस स्थिति में भी नहीं है,तो वन में जाकर दिक्पालों को साक्षी करके दोनों बाहें उठाकर कक्षमूल(कखवारी)दिखा दे और कह दे कि’मेरे पास कुछ नहीं है;अतः मैं केवल श्रद्धा भक्ति से आपको प्रणाम करता हूॅ।वे इससे भी वे प्रसन्न और तृप्त हो जायेंगे’:—
न मेऽस्ति वित्तं न धनं न चान्य-
च्छ्राद्धस्य योग्यं स्वपितृन्नतोऽस्मि।
तृप्यन्तु भक्त्या पितरौ मयैतौ
भुजौ ततौ वर्त्मनि मारुतस्य।।
(वराह पुराण’अध्याय-13 श्लोक-58)
पितृगण की तृप्ति के मूल में श्रद्धा का भाव ही है।उनकी अर्चना,श्राद्ध और तर्पण अवश्य होना चाहिये।’महाभारत’मे उन्हें ‘देवतावों का भी देवता’कहा गया है।
—रघोत्तम शुक्ल
स्तंभकार