सम्पादक – शारदा शुक्ला
ईश्वर का अंश अविनाशी आत्मा ही शरीर को प्राणवान बनाये रखता है।इसके शरीर से पृथक् होते ही वह निर्जीव और मृत हो जाता है।वह सूक्ष्म शरीर को साथ लेकर स्थूल देह से बाहर निकलता है।सूक्ष्म शरीर में 27 अवयव होते हैं।वे हैं-पृथ्वी,जल,अग्नि,आकाश और वायु नामक पञ्च महाभूतों के अपञ्चीकृत रूप,दसो इंद्रियाॅ,अंतःकरण चतुष्टय(मन,बुद्धि,चित्त,अहंकार)पञ्च प्राण(प्राण,अपान,व्यान,उदान,समान)तथा अविद्या,काम और कर्म।इसी सूक्ष्म देह के अंदर त्रिगुणात्मक यानी सत,रज,तम गुणों से युक्त कारण शरीर रहता है।मृत्यु काल में आत्मा इन्हें लेकर ही स्थूल देह तजता है।
अब सवाल यह है कि यह अति महत्वपूर्ण आत्मतत्व देह में कहाॅ निवास करता है?विश्व के अन्यतम दर्शन ग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय-13,श्लोक 32 में कहा गया है कि ‘देह में सर्वत्र स्थित आत्मा निर्गुण होने के कारण देह के गुणों से लिप्त नहीं होता’।हालाॅकि अगले श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘हे अर्जुन!जैसे एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण लोक को प्रकाशित करता है,उसी प्रकार एक ही आत्मा इस सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है’।अब सूर्य तो एक जगह ही स्थित है ;अतः सम्पूर्ण क्षेत्र यानी शरीर को प्रकाशित करने के लिये,आत्मा का सम्पूर्ण शरीर में विद्यमान होना जरूरी नहीं है।उपनिषद् वेदों के ज्ञान काण्ड हैं।इनमें अध्यात्म विषयक गहन विश्लेषण किये गये हैं इन्हें वेदांत कहते हैं।मुण्डक उपनिषद-2/1/10 में उसे ‘निहितं गुहायां’यानी हृदय की गुफा में निवास करने वाला कहा गया है।इसी में अन्यत्र उस तत्व को ‘वाह्य और अंतर में सर्वत्र व्याप्त’कहा गया।एक मंत्र जो कई उपनिषदों में मिलता है,उसके अनुसार ‘दो सजातीय पक्षी(जीव और ब्रह्म)एक वृक्ष(शरीर)पर बैठे हैं।उनमें एक(जीवात्मा)फल(कर्मों के)चख रहा है और दूसरा(ब्रहा)केवल देख रहा(द्रष्टा)है।तैत्तरीय उननिषद कहता है कि ‘यदि एक बाल के सौ विभाजन किये जायॅ और फिर एक विभक्त भाग के भी सौ विभाजन किये जायॅ तो जो एक(कल्पित)भाग होगा,उतना सूक्ष्म आत्मा है’।लेकिन वह है किस जगह! वेद में उल्लेख है'”अंति संतं न जहाति अंति संतं न पश्यति।देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति।”;अर्थात् वह सदा पास है,किंतु दिखाई नहीं देता,न मरता है,न जीर्ण होता है’।योग मार्ग में दोनों भृकुटियों के बीच का स्थान आज्ञा चक्र कहा गया है।मन अपनी 64 रश्मियों के साथ यहीं स्थित है।यह ध्यान से प्रकाशित होता है और साधक को यहीं परम शिव के चिदम्बा के साथ दर्शन होते हैं।एक महात्मा की पुस्तक “आत्म प्रसंग”में तमाम विश्लेषणोंपरांत इसे ‘दुर्ज्ञेय’कहा गया।कारण शरीर पञ्च कोशों में ‘आनंदमयकोश’तो है,किंतु समाधि में वह भी भग्न हो जाता है,तब योगी आत्म विस्मृत हो ब्रह्म सागर में डूबता उतराता है।मुझे भी लगता है,सोइ जानइ जेहि देहु जनाई।जानत तुमहिं तुमहिं होइ जाई’।।
रघोत्तम शुक्ल
स्तंभकार