*संपादक-शारदा शुक्ला*
रामचरितमानसकी उक्त चौपाई महर्षि वाल्मीकि के संदर्भ में कही गई है,जो इस बात की गवाही देती है की भगवन्नाम कदाचित विकृत रूप में भी लिया जाय,तो भी वह श्रेय लब्ध करा देता है और मुक्ति का पथ प्रशस्त करता है।यों तो भक्ति जगत में भाव की प्रधानता होती है और कर्म गौण है;किंतु दोनों का समन्वय हो तो आदर्श स्थिति बनती है।
कर्मकाण्ड,विधि,निषेध न भी ज्ञात हो और भावातिरेक हो,तो भी कल्याणकर है।इन सामान्य नियमों के रहते मनीषियों ने पाया है और व्यवस्था दी है कि इन सबसे रहित नामोच्चार हो और कदाचित वह भी विकृत रूप में,तो भी ‘नामी’उस नामोच्चारक का कल्याण कर देता है।गोस्वामी तुलसीदास ने ‘मानस’ में न केवल ऊपर संदर्भित वाल्मीकि से सम्बन्धित उदाहरण दिया है,बल्कि स्पष्ट व्यवस्था दी है”भाव कुभाव अनख आलसहू।राम भजे मंगल दिसि दसहू।।”
यही नहीं अपने एक अन्य ग्रंथ “?’कवितावली’में उन्होंने एक अंधे,वृद्ध,जर्जर यवन का उदाहरण देते हुए एक छंद लिखा है,जिसमें वे कहते हैं कि उसे रास्ते चलते सुअर के शावक ने आक्रमण करके घायल कर दिया और वह मरणासन्न हो गया उसने क्रोध में कहा “हा हराम हन्यौ”अर्थात् इस हरामखोर ने मुझे मार डाला।करुणावरुणालय भगवान राम ने अंत समय लिये कहे गये उस ‘हराम’ शब्द से “राम”ग्रहण कर लिया और उसे अपने में विलीन करके सायुज्य मुक्ति प्रदान कर दी;यथा–
ऑधरो अधम जड़ जाॅजरो जरा जवनु,
सूकर के सावक ढका ढकेल्यो मग में।
गिरो हिये हहरि हराम हो हराम हन्यौ,
हाय हाय करत परीगो काल फग में।।
तुलसी विसोक ह्वै त्रिलोकपति लोक गयो,
नाम के प्रताप बात विदित है जग में।
सोई राम नाम जे सनेह से जपत जन,
ताकी महिमा क्यों कही जाति है अग में।।
ऐसे अनेक दृष्टांत आर्ष ग्रंथों में आये हैं।’गुणनिधि’नाम एक ब्राह्मण चोर था।वह शिव मंदिर में लगा सोने का घण्टा चुराने गया था,किंतु ऊॅचाई पर होने के कारण उसे खोल नहीं पा रहा था।अतःवह शिवलिंग पर चढ़कर यह कार्य करने लगा।भगवान शंकर प्रकट हो गये और प्रसन्न होकर कहा’वर माॅगो,तुमने तो अपने को हम पर सशरीर अर्पित कर दिया।
कौन भगति कीन्हीं गुननिधि द्विज।
होइ प्रसन्न दिन्हेउ सिव पद निज।।
—(विनय पत्रिका)
काम और क्रोध वैसे षट विकारों में से प्रधान दो हैं;किंतु शिशुपाल और गोपिकावों ने भगवान कृष्ण को क्रमशःक्रोध और काम भाव से ही भजा यानी ध्यान किया;किंतु इन सबका मुक्ति प्राप्त हुई।देवी भागवत में अनपढ़ ‘उतथ्य’की कथा आई है।उसने बधिक को शूकर पर बाण से करते और शूकर को विकल होते देखा,तो उसके मुख से निकला ”ऐ’।(अज्ञातपूर्वं च तथाऽश्रुतं च दैवात्मुखे वै समुपागतं च)मालूम हो कि इसमें अनुस्वार लगाने से “ऐं”देवी जी का सारस्वत बीज मंत्र बन जाता है।देवी माॅ ने उस अधूरे स्वराक्षर को ही शुद्ध मंत्रोच्चार मान कर उसे सिद्धि प्रदान कर दी।
तब विधि और भावपूर्वक भक्ति एवं नामोच्चार की अपरम्पार महिमा आसानी से समझी जा सकती है।
—रघोत्तम शुक्ल
वरिष्ठ लेखक
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