सम्पादक – शारदा शुक्ला
लखनऊ की तहज़ीब और नफ़ासत दुनिया भर में मशहूर है।यसाॅ वाले शिष्टाचार झगड़े में भी नहीं छोड़ते।1964 के आसपास रहा होगा;इटावा की नुमाइश में एक कार्यक्रम में दिल्ली के अशोका होटल का कमेडियन लखनऊ के नवाबों पर एक चुटकुला सुना रहा था।एक नवाब के बच्चे को दूसरे नवाब के बच्चे ने खेल खेल में पीट दिया था।बस फिर क्या था!इज्जत का सवाल था।जिनका बच्चा हार गया था,वह पूरी नवाबी पोशाक पहन कर,छड़ी लेकर बग्घी पर सवार हुए और दूसरे नवाब के दरवाज़े पर पहुॅच गये।वे ऊपर दूसरी मञ्जिल पर थे।पहले वाले नवाब,जो लड़ने गये थे,यूॅ बोले,”अमाॅ नवाब साहब!आपके साहबज़ादे ने मेरे बेटे को मारा है,जो मुझे हरगिज़ बर्दाश्त नहीं हैं।आप झगड़ा करने के वास्ते नीचे तशरीफ ला रहे हैं या मैं ऊपर आ कर हाज़िर होऊॅ”।बाबू भगवतीचरण वर्मा की मशहूर कहानी “दो बाॅके”में भी दो लखनऊ के दो शोहदों की लड़ाई कुछ ऐसी ही कागज़ी और मनोरञ्जक है।अब एक सही किस्सा।
1920 में लखनऊ म्युनिसपैलिटी के चुनाव हुए।चौक इलाके से कारपोरेटर सीट के लिये मशहूर तवायफ दिलरुबाॅ जान खड़ी हुईं।वे बला की खूबसूरत थीं।अब उनकी महफिलें खचाखच भरने लगीं।कोई उनके खिलाफ लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था।एक हकीम थे शमशुद्दीन।उनके कुछ दोस्तों ने उन्हें पानी पर चढ़ा कर पर्चा दाखिल करवा दिया।कनवेसिंह होने लगी।दिलरुबाॅ जान की तरफ की भीड़ सरासर ज्यादा थी।हकीम साहब दोस्तों पर झल्लाए।कहा,हमें फिज़ूल में हारने के लिये खड़ा कर दिया।भला दिलरुबा को छोडकर हमें कौन वोट देगा;लेकिन हकीम साहब के दोस्तों ने हिम्मत नहीं हारी उन्होंने एक नारा दीवालों पर लिखवाया–
हिदायत है ये चौक के वोटर-ए शौकीन को।
दिल तो दिलरुबा दीजिये,वोट शमशुद्दीन को।।
तवायफें भी कम होशियार नहीं थीं।जवाबी नारा दीवालों पर लिखवा दिया-‘
हिदायत है ये चौक के वोटर’-ए शौकीन को।
वोट दिलरुबाॅ को दीजिये,नब्ज़ शमशुद्दीन को।।
खैर!वोटिंग हुई शमशुद्दीन जीत गये।अब लखनवी तहज़ीब के हिसाब से दिलरुबाॅ हकीम साहब के घर मुबारकबाद देने गईं।बातों बातों में कहा,”इसका मतलब है लखनऊ में आशिक कम मरीज़ ज्यादा हैं’।
रघोत्तम शुक्ल
स्तंभकार