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खालसा पंथ और गीतोपदेश

संपादक-सुश्री शारदा शुक्ला

वैशाखी का पावन पर्व आ गया।सामान्यतया सभी का किंतु विशेष रूप से सिख भाइयों का।इसका सम्बन्ध कृषि,धर्म और कर्म सबसे है।इसी दिन वर्ष 1699 में सिखों के दसवें और अंतिम मानव-गुरु गोविंदसिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की थी।इसके बाद ग्रंथ साहब गुरु मान्य हो गये।खेती की फसल भी इस समय तैयार हो चुकी होती है,अत:कृषि प्रधान देश में हृदयों में आह्लाद होना स्वाभाविक है।सौर मण्डल के राजा सूर्य देव मेष राशि पर आकर परम बलवान हो चुके होते है,क्योंकि यह उनकी उच्च राशि है तथा जगत के प्राणियों के जीवनाधार सूर्य ही हैं।तत्समय मुग़लों के अत्याचार से भारत भूमि में त्राहि त्राहि मची थी।गुरु ने इसके विरुद्ध संगठन खड़ा करने का निश्चय किया।

देश के कोने कोने से लोग आनन्दपुर साहिब में बुलाये गये।अस्सी हजार की भीड़ एकत्र हुई।गुरु ने अपने ओजस्वी आह्वान में मातृभूमि रक्षार्थ शिर माॅगे।बारी बारी से लाहौर के दयाराम,दिल्ली के धरमदास,जगन्नाथपुरी के हिम्मतराय,बीदर के साहबचन्द्र और द्वारकापुरी के मोहकमचंद उठे और गुरु आज्ञानुसार व्रत पालन का वचन दिया।इन पञ्च प्यारों को गुरु ने अमृत छकाया और उनके हाथ से खुद भी छका।पाॅच ककारों यानी केश,कच्छ,कृपाण,कंघा और कड़ा से प्रतिबद्धता रक्खी गई तथा नाम में ‘सिंह”लगाया जाना अनिवार्य घोषित हुवा।’वाहेगुरु’का धार्मिक नारा भी अंगीकार किया गया। इस पंथ को खालसा नाम दिया गया,जो अत्याचारों के विरुद्ध चट्टान की तरह खड़ा हो गया।खालसा का शाब्दिक अर्थ है ‘शुद्ध’।
इसमें सभी धर्मों के लोग मिलाकर एक किये गये,जैसे श्रीमद्भगवद्गीता मे कहा गया है कि ‘विद्या और विनय से सम्पन्न ब्राह्मण,गाय,हाथी,कुत्ता और चाण्डाल सब में पण्डित यानी विद्वज्जन समान दृष्टि रखते हैं”।यही नहीं गीता में “समोऽह॔ सर्व भूतेषु”तथा “ईश्वरः सर्व भूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति” का भी उद्घोष हुवा है।गुरु गोविंदसिंह ने अत्याचारों के विरुद्ध तलवार उठाने का आह्वान किया है;ठीक वेसे ही जैसे गीता में कर्म से विमुख हो रहे अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण ने शस्त्र उठाने हेतु प्रेरित किया है।उन्होंने हर समय भगवद् स्मरण करते हुए युद्ध करने की व्यवस्था दी है,”तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध्य च”।गीता का कर्मयोग विश्व प्रसिद्ध दर्शन है।कर्म,अकर्म और विकर्म तीन श्रेणियाॅ उल्लिखित है।निर्लिप्त शुभ कर्म करना प्रतिपादित किया गया है।उसी तरह गुरु गोविदसिंह अपने ‘चण्डी चरित्र’ में शुभ कर्मों से कभी न विचलित होने और सदुद्येश्य व अधिकार हेतु युद्ध में जूझने की बात कहते हैं:—

“देहि सिवा वर मोहि इहै सुभ करमन ते कबहूॅ न टरौं।
न डरौं अरि सों तब जाय लरौं,निसचै करि आपुनि
जीति करौॅ।।

एक मान्यतानुसार गुरु गोविंदसिंह विष्णु के अंशावतार भगवान श्रीराम के वंशज थे।राम का राज्य तो बहुत विस्तृत था,किंतु लगता है उनके पुत्रों -लव तथा कुश-ने पञ्जाब भूभाग पर विशेष ध्यान दिया और तत्क्रम में लाहौर और कुसूर नाम के नगर(वर्तमान पाकिस्तान)क्रमशः लव और कुश द्वारा बसाये गये थे।

-रघोत्तम शुक्ल
वरिष्ठ स्तंभकार

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