सम्पादक -शारदा शुक्ला
जिस मास की पूर्णिमा को चन्द्रदेव पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र पर होते हैं उसे आषाढ़ कहा जाता है।यह वर्षा ऋतु का प्रथम मास है और इसके विविध रंग और आयाम हैं।इंसान से लेकर भगवान तक और किसान से लेकर कवि और साहित्यकार पर तक इसने अपनी छाप छोड़ी है और इन वर्गों ने इसे अपने अपने तरीके से उपयोग किया है।
पृथ्वी पर हरीतिमा का जनक होने के कारण यह कृषकों को अति प्रिय है और इस मास के आगमन पर अपनी फसल की तैयारी उन्हें बहुत जल्द करनी पड़ती है।कहावत है “कातिक तेरह तीन असाढ़”।यानी तीन दिन के अंदर असाढ़ू फसल के लिये किसान को कार्यवाही कर लेनी होती है।और अगर चूक गया,तो अन्न का टोटा रहेगा।कहावत है,”डार का चूको बाॅदर।असाढ़ का चूको किसान”बड़े जोखिम में पड़ जाता है।यद्यपि खेती किसानी के काम में व्यस्ततावश उन्हें इस मास में कपड़े सिलवाने की फुरसत नहीं होती है,जिसके परिणामस्वरूप दर्जी खाली बैठे रहते हैं।अतः बेरोजगार और ठलुहे के लिये गाॅव की लोकोक्ति है”असाढ़ के दर्जी”।कहावत तो एक और भी है,किंतु उसमें एक जाति सूचक शब्द है,अतः हम आपको यहाॅ नहीं बता सकते।मगर भगवान(विष्णु)दूसरा रास्ता अपनाते हैं।वे इस मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को चार मास के लिये सो जाते हैं।इसे हरि शयनी एकादशी कहते हैं।तब से लेकर चार मास वे शयन रत रहते हैं और इस बीच शुभ कार्यों की वर्जना रहती है।वे कार्तिक शुक्ल एकादशो को उठते हैं,जिसे देवीत्थानी एकादशी कहते हैं और इसके साथ ही शुभ कार्यों का प्रारम्भ हो जाता है।ऋतु वर्णन के प्रवीण कवि सेनापति ने लिखा है कि चूॅकि आषाढ़ में मेघों की घटा घनघोर छाई रहती है,तो दिन में भी रात का भ्रम होने लगता है;अतः भगवान सो जाते हैं।साहित्यकार मोहन राकेश ने 1959 में अपना बहु चर्चित नाटक इसी मास के नाम पर लिखा:”आषाढ़ का एक दिन”।अब चूॅकि मुशी प्रेमचंद्र ने अपनी मशहूर कहानी “पूस की रात” लिखकर पूष मास को आगे बढ़ाया,तो आषाढ़ भी पीछे क्यों रहे।यह कमी मोहन राकेश ने पूरी कर दी।
कविकुलगुरु कालिदास के विरही यक्ष को रामटेक पर्वत पर “आषाढ़स्य प्रथम दिवसे”ही मेघ मिले,जिन्हें उसने अपनी अलकापुरी में रह रही पत्नी के पास दूत बनाकर भेजा।हालाॅकि मलिक मोहम्मद जायसी की वियोगिनी नायिका रानी नागमती को आषाढ़ कष्ट कारक लगता है।”पद्भावत्’में पति का वियोग सहन करते हुए वह कहती है-
चढ़ा असाढ़ गगन घन गाजा।साजा विरह दुन्द दल बाजा।।
धूम साम धौरे घन आये।सेत धजा बग पाॅति देखाये।।
कवि ने वियोगिनी के लिये इस मास को एक आक्रमणकारी राजा के रूप में दिखाया है।बात सही है;जब भगवान राम तक को पत्नी पास न होने पर बादल की गरज चमक से डर लगने लगता है,तो भला लौकिक नारी नागमती की क्या बिसात!श्रीराम कहते हैं”घन घमण्ड गरजत नभ घोरा।प्रिया हीन डरपत मन मोरा”।।आषाढ़ में गाॅव की ताल तलैयाॅ भर जाती हैं।पं.नरेंद्र शर्मा को इस मास की शुरुवात में अपने गाॅव की तलैया ‘असाढी’की याद आ जाती है और वह स्मरण करते हैं कि ‘अब असाढ़ी’पानी से लबरेज़ हो गई होगी’
“चौड़ी छाती खोल आसाढ़ी पड़ी पी रही होगी आल”।
अलबत्ता इस मास में बेल खाना वर्जित है।वह स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है।लोकोक्ति है,”चैतै गुड़ बेसाखै तेल जेठै पंथ असाढ़ै बेल”।।ऐसे ही अन्य मासों के लिये अलग अलग चीज़े वर्जित करते हुए सलाह दी गई है,”ई बारह जो देय बचाय।तेहि घर कबहूॅ वैद न आय।।”
—–रघोत्तम शुक्ल