विश्व पर्यावरण दिवस हर साल 5 जून को होता है। यह पर्यावरण के लिए विश्वव्यापी जागरूकता और कार्रवाई को बढ़ावा देने के लिए संयुक्त राष्ट्र का प्रमुख दिवस है और दुनिया भर में करोड़ों लोगों द्वारा मनाया जाता है। इस वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस ‘केवल एक पृथ्वी’ थीम के तहत आयोजित किया जा रहा है।
बात भारतवर्ष की करें तो हमारे पूर्वज बहुत पहले पर्यावरण का महत्व समझ चुके थे। ‘सोम’ ऋग्वैदिक कालीन वनस्पति के देवता हैं जिनके लिए ऋग्वेद का पूरा का पूरा नवां मण्डल समर्पित है। इसी प्रकार वेदों में इंद्र,वरुण और पशुपति आदि देवताओं की अवधारणा क्रमश: जल, वायु तथा पशुओं और वनस्पतियों के लिए की गई है अर्थात वैदिक काल में ही भारतीय ऋषि मुनि पर्यावरण के महत्व को समझ चुके थे और आमजन को उसके महत्व को समझाने के लिए पूजा पाठ तथा कर्मकाण्डों का सहारा ले रहे थे। हमारे पूर्वजों ने वनस्पतियों से प्रेरणा ली उन्हें कभी बंधु तो कभी पुत्र के रूप में देखा। यहां पर प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य ‘जीवक चिंतामणि’ के रचयिता जीवक की चर्चा करना प्रासंगिक होगा । जीवक जब अपनी शिक्षा समाप्त कर तक्षशिला से विदा ले रहे थे तो उनके गुरू ने उनसे कहा कि महाविद्यालय के आस पास चार योजन तक जो भी वनस्पति अनुपयोगी हो उसे ले आओ। जीवक ने खोज शुरू की अंत में निराश लौट आए। आचार्य को बताया कि कोई भी वनस्पति ऐसी नहीं मिली जो अनुपयोगी हो । आचार्य ने प्रसन्न होकर कहा जाओ मेरी गुरु दक्षिणा मिल गई। ये कथानक हमें बताता है कि प्रकृति में कुछ भी बेकार नहीं है। प्रकृति की इसी उपयोगिता को देखते हुए ही शायद ये पेड़ पौधे, नदियां, पहाड़ पशु पक्षी हमारे संस्कारों और त्योहारों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं। वर्तमान में ये ज्ञान रूढ़ि बनकर रह गये हैं। हम एक ओर इन्हें धन्यवाद प्रेषित करते हुए इनकी पूजा करते हैं दूसरी ओर निहित स्वार्थ के लिए इन्हें हानि पहुंचाते हैं।
वराह पुराण में एक श्लोक मिलता है जिसका अभिप्राय है कि जो व्यक्ति 1 पीपल,1 नीम,1 बड़ ,10 पुष्प वृक्ष, 2 अनार, 2 नारंगी,5 आम के वृक्ष लगाता है वो कभी नर्क में नहीं जाता है। इस श्लोक की पुनरावृत्ति वृहतपराशर स्मृति, स्कन्द पुराण आदि ग्रंथों में हुई है। हिंदू धार्मिक ग्रंथों में ही नहीं वरन इस्लाम के पवित्र ग्रंथ कुर्आन शरीफ़ में भी पर्यावरण के महत्व को दर्शाया गया है। कुर्आन में कई जगहों पर जन्नत का वर्णन करते हुए लिखा है कि वहां मीठे पानी के सोते और फलदार वृक्ष हैं। यानि प्रकृति प्रदत्त प्रत्येक वस्तु बेशकीमती है। विडंबना ये है कि आज जब पर्यावरण की बात आती है तो याद आती है ग्लोबल वार्मिंग और तरह तरह के प्रदूषण। पूरी दुनिया इसके कुप्रभावों से जूझ रही है। बात जब जलवायु परिवर्तन की वजह से उपजे ख़तरों की हो तो आपको जान कर हैरानी होगी कि इन ख़तरों के मामले में भारत दुनिया के शीर्ष दस देशों में शामिल है।
यूं तो पर्यावरण दिवस हम 48 सालों से मनाते आ रहे हैं और इन सालों में हमने इस मुद्दे को लेकर उतार चढ़ाव वाली न जाने कितनी बहसें देखी हैं और न जाने कितने प्रस्ताव और समझौते रचे गये हैं, लेकिन असलियत में विश्व का पर्यावरण लगातार दूषित होता जा रहा है और उसकी ताजी बानगी हमें वर्तमान कोरोना काल में देखने को मिल रही है। इस महामारी ने लाखों लोगों की जान लेने के सिवा पर्यावरण के बारे में हमारी चेतना और हमारे पाखंड दोनों की ही पोल खोलकर रख दी है।
अव्वल तो कोरोना के ताजा वायरस को ही प्रकृति के नियमों और संतुलन से छेड़छाड़ का परिणाम माना जा रहा है, पर कारण चाहे जो भी रहा हो लेकिन इस वायरस ने यह तो साबित कर ही दिया है कि विज्ञान और तकनीकी की तमाम उपलब्धियों के बावजूद एक नन्हा सा वायरस पूरी मानव जाति के जीवन में तबाही मचा सकता है,उसे लाचार महसूस करवा सकता है। अपनी तरक्की पर गर्व करने वाले इंसान को घर में तालाबंद होकर बैठने पर मजबूर कर सकता है। इस साल मार्च अप्रैल के महीनों से ही गर्मी का कहर देखने को मिल रहा है। कनाडा जैसे ठंडे देशों में पारा 50 पार कर रहा है, ग्लेशियर पिघल रहे हैं। पूरे विश्व में फैला भयानक उपभोक्ता वाद, जनसंख्या विस्फोट, युद्ध, विकास के नाम पर उजड़ते जंगल इसकी कुछ वजहें हैं। आखिर हम ये कब समझेंगे कि हम प्रकृति से उत्पन्न हुए हैं प्रकृति से तालमेल बिठाना ही हमारा अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। इसी में मानव जाति की भलाई है।
शारदा शुक्ला
वरिष्ठ पत्रकार
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