संपादक-शारदा शुक्ला
सूर्यदेव की उपासना का चार दिनी पर्व छठ या ‘सूर्य षष्टी’ 20 नवम्बर को पूर्ण हुवा।लोक संस्कृति के गहरे रंग देते हुए ‘नहाय खाय’,खरना,और अस्तंगत भानु को अर्घ्य देने व व्रत रखने के अनुष्ठान पूरे होकर अंतिम दिन सप्तमी को उगते सूर्य का अर्चन कर यह पर्व पुञ्ज पूर्णता को प्राप्त हो जाता है।हिंदू धर्म के अनुसरक बहुदेव पूजक होते हैं किंतु इनमें पाॅच श्रेणियाॅ प्रमुख हैं।ये हैं-वैष्णव,शैव,शाक्त,गाणपत्य और सौर,जो क्रमशः विष्णु,शिव,शक्ति,गणेश और सूर्य के उपासक होते हैं।वैसे धार्मिक मामलों के कट्टर न होने के कारण अधिकांश हिंदू सभी में आस्था रखते हैं।सूर्य उपासना अति प्राचीन है और विश्व के आदि ग्रथ ऋग्वेद में इसके मंत्र आये हैं।इसके पञ्चम् मण्डल,सूक्त-81 के 5 वें मंत्र में कहा गया है कि ‘देवाधिदेव सूर्य सृजनकर्ता,पोषक,सविता और समस्त लोकों को आलोकित करने वाले हैं’।तैत्तरीय उपनिषद् में “शं नो मित्रःशं वरुणः”कहकर इनकी प्रार्थना की गई है।सूर्योपनिषद् में तो इन्हें देवों और वेदों को जन्म देने वाला बताया गया है , “आदित्यात्वेदा जायते”कहा गया है।भगवती दुर्गा का जब प्राकट्य हुवा,तो सभी देवतावों ने उन्हें अपने शस्त्र और शक्तियों से सम्पन्न किया;तब सूर्य ने अपनी रश्मियों से उनमें तेजस्विता भर दी।शस्त्र धारियों में सर्वश्रेष्ठ श्रीराम जब रावण से युद्ध में विजय नहीं प्राप्त कर पा रहे थे,तो अगस्त्य ऋषि आये और उन्हें “आदित्य हृदय”स्तोत्र का तीन बार पाठ करने को कहा और स्तोत्र बताया।राम ने वहीं युद्ध क्षेत्र में आचमन लेकर तीन बार पाठ किया और दुर्दांत राक्षस पर विजय प्राप्त की।वाल्मीकि रामायण,युद्धकाण्ड,अध्याय-105 में अगस्त्य जी राम से कहते हैं–
पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम्।
एतत् त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यति”।।
वे शक्ति के ही नहीं ज्ञान और ऊर्जा के भण्डार हैं।गीता का महान् दर्शन भगवान ने पहले सूर्य को ही दिया था।गीता के चतुर्थ अध्याय में श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘हे अर्जुन!आदि काल में मैंने इस ज्ञान को विवस्वान(सूर्य)को दिया था।उन्होंने मनु को,मनु ने इक्ष्वाकु को दिया और पीढ़ी दर पीढ़ी यह आगे बढ़ा।समय के प्रवाह से यह लुप्त हो गया;जिसे फिर से मैं तुम्हें दे रहा हूॅ”।हनुमान जी के भी गुरु सूर्य ही थे,जिनसे सभी विद्याएं ग्रहण करके वे “ज्ञानिनामग्रगण्यम्”बने।
सर्वश्रेष्ठ मंत्र गायत्री भी सविता यानी सूर्य की अर्चना का ही मंत्र है।ज्योतिष शास्त्र में सूर्य अधिकार जातक के मुख पर बताया गया है और वे लग्न के कारक हैं,जिसमें सभी भाव समाहित होते हैं।वे आत्मा का रूप कहे गये हैं और सौरमण्डल के राजा हैं।उनके बिना पृथ्वी पर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।
चंद्रमा की छठवीं तिथि से चन्द्र बली होने लगते हैं और कार्तिक मास से शीत का प्रारम्भ होने लगता है।तब दिन छोटा होने लगता है और सौर ऊर्जा कमतर मिलना प्रारम्भ हो जाता है।अतः उनकी अर्चना की जाती है।वराह पुराण,अध्थाय-25 के अनुसार देवतावों के सेनानी और भगवान शंकर के पुत्र कार्तिकेय जी को ब्रह्मा जी ने छठ तिथि ही प्रदान की है।छै कृत्तिकावों ने उन्हें स्तन पान कराया था,अतः कार्तिकेय कहलाये।वे षडानन हैं। कार्तिक मास का नाम यह इसलिये पड़ा क्योंकि इसकी पूर्णिमा को चन्द्रमा कृत्तिका नक्षत्र पर होता है।श्रीकृष्ण के अग्रज हलधर बलराम,जो भगवान विष्णु के अष्टम् अवतार हैं,छठ को ही जनमें तथा योग,हठ और मानव देह शोधन के भी छै कर्म प्रसिद्ध हैं,जिन्हें ‘षटकर्म’कहा जाता है।
इस तरह प्रत्यक्ष देवता सूर्य का इस षष्टी से जब योग हो,तो उनकी अर्चना,उपासना का विशेष फल मिलना स्वाभाविक है।
रघोत्तम शुक्ल
वरिष्ठ स्तंभकार