सम्पादक -सुश्री शारदा शुक्ला
नव निर्मित संसद भवन के संदर्भ में ‘सेंगोल’शब्द बार बार प्रकाश में आया है।यह तामिल भाषा के ‘सेम्मई’शब्द से बना है,जिसका अर्थ ‘नीतिपरायणता से है।पहलै ,विशेषकर चोलवंशी राजावों के समय,यह एक राजदण्ड के रूप में सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक हुवा करता था,जिसे राज पुरोहित या धर्माचार्य सिंहासन पर आरूढ़ होने वाले राजा को देते थे।इसका अभिप्राय यह होता था कि राजा नीति न्याय और धर्मसंगत विधि से प्रजा पालन पालन करेगा।वर्ष 1947 अगस्त में जब देश स्वतंत्र हुवा तो इस परम्परा का पालन करते हुए 14/15 अगस्त की रात 11.45 बजे लार्ड माउण्टबेटन ने तामिलनाडु में चक्रवर्ती राज गोपालाचारी के निर्देशन में निर्मित और मठों के पुरोहितों द्वारा धर्मावेष्टित एक सेंगोल या राजदण्ड जवाहरलाल नेहरू को हस्तगत करके सत्ता संक्रमित की थी।यह पाॅच फीट लम्बा चाॅदी का दण्ड था,जिसपर सोने का पत्र चढ़ा था;इसके ऊपर शिव जी के वाहन नंदी जी विराजमान थे।
नेहरू ने इसे अपने इलाहाबाद स्थित निवास आनंदभवन में रखवा दिया।पश्चात् यह भवन संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया और उसमें यह सेंगोल ‘नेहरू की टहलने की छड़ी’वर्णित कर संरक्षित कर दिया गया।वर्तमान प्रधानमंत्री को लगभग डेढ़ वर्ष पहले यह कथा मालूम हुई,तो इसे खोजा गया।काफी तलाश के बाद यह प्रयागराज संग्रहालय मैं मिल गया।तब यह योजना बनाई गई कि इस पवित्र प्रतीक को नये संसद सदन में सभापति के आसन के पास स्थापित किया जाय।जो हुवा।
यह इसका निकट विगत का इतिहास जरूर है,किंतु इस प्रथा और राजदण्ड का उद्गम पञ्चम वेद की मान्यता लिये महाभारत में उपलब्ध है।शाॅति पर्व के राजधर्मानुशासन पर्व,अध्याय-122 में ऐसे राजदण्ड की उत्पत्ति की रोचक कथा आई है।भीष्म पितामह युधिष्ठिर को राजधर्मोपदेश देते हुए माॅधाता और वसुमना का उपाख्यान सुनाते हैं।इसके अनुसार उद्दण्डता रहित न्यायोचित व धर्मसंगत शासन हेतु ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर स्वयं भगवान शंकर राजदण्ड के रूप में प्रकट हुए हैं।इस अध्याय के श्लोक-24 में कहा गया है कि”तब शूल नामक शस्त्र धारण करने वाले सुरश्रेष्ठ महादेव जी ने देर तक विचार करके स्वयं अपने आपको ही दण्ड के रूप में प्रकट किया”।यथा–
ततः स भगवान ध्यात्वा चिर शूल वरायुधः।
आत्मनात्मना दण्डं ससृजै देवसत्तमः।।।
उसी से देवी सरस्वती ने दण्डनीति बनाई और वह उत्तरोत्तर प्रजापालकों के पास जाता रहा।राजा प्रायः क्षत्रिय होते थे;किंतु उन्हें ब्राह्मण यह दण्ड सौंपकर धर्मानुसार सत्ता चलाने का अधिकार प्रदान करते थे।श्लोक-50 कहता है,”ब्राह्मणेभ्यश्च राजन्या लोकान् रक्षति धर्मतः”।
अंत में महाभारतकार कहते हैं कि इस तरह राजदण्ड के रूप में शिव जी ही विराजमान होते हैं और यह दण्ड आदि मध्य और अंत हर काल में विद्यमान हैं ।
रघोत्त्तम शुक्ल, स्तंभकार
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