लखनऊ को भले ही लोग सरसरी तौर पर विलासितापूर्ण नवाबी काल में सजाया सॅवरा हुवा मान लेते हों,किंतु वास्तविकता इससे भिन्न है।यह नगर प्राचीन वैदिक संस्कृति की भी पीठिका के रूप में जाना जाता है।त्रेता युगीन रामराज्यकालीन सभ्यता के भौतिक चिह्न रूप लक्ष्मण टीला,शेषनाग मंदिर,सूर्यकुण्ड आदि तो यहाॅ हैं ही।कौण्डिन्य ॠषि की तपस्थली ‘कुड़ियाघाट(कौण्ठिन्यघाट) और उनके द्वारा स्थापित कोणेश्वर महादेव मंदिर(कौण्डिनेश्धर) यहाॅ विद्यमान हैं।इसके अलावा ऐतिहासिक तथ्य है कि शताब्दियों पूर्व मुग़लकाल में यहाॅ बाजपेय यज्ञ भी हुवा था,जिसमें अकबर बादशाह ने एक लाख रुपया सहयोग राशि दी थी।यह चौक के पास बाजपेयी टोला में सम्पन्न हुवा;तब इस मोहल्ले का विस्तार चौक से गोमती तक था।इसे विष्णु शर्मा और महा शर्मा के पौरोहित्य में सम्पन्न करवाया गया।यह यज्ञ सोम यज्ञों में से एक है,जिसमें प्रातः,दोपहर और सायं सोमपान का विधान है।इसे ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों करवा सकते हैं,जिसके सूत्र यजुर्वेद में तथा विस्तार शतपथ ब्राह्मण में मिलता है।ब्राह्मण इसे पुरोहित पद पाने और क्षत्रिय राजपद हेतु करवाते थे।मूलतः इसका सम्बन्ध कृषि संस्कृति से रहा,फिर सामाजिक व राजनीतिक महत्व भी हो गया और ये आधुनिक टूर्नामेण्ट या ओलम्पिक खेल जैसे हो गये,जिनमें घोड़े जुते रथों की दौड़ प्रतियोगिता भी होती थी।बाज का अर्थ वनस्पति व अन्न से है और तत्सम्बन्धी पेय का विधान होने के कारण यह ‘बाजपेय’यज्ञ कहलाया।पक्षियों में बाज और पशुवों में बाजि शक्ति के प्रतीक मान्य हैं।यही इसके नामकरण का आधार है;यानी विजय लब्धि एवं शक्ति सम्पन्नता प्राप्ति। सोम भी एक पर्वतीय वनस्पति ही है,जो अब लुप्तप्राय है।आश्वलायन श्रौत सूत्र के अनुसार इसमें दान की जाने वाली वस्तुवों में 17 के अंक का बड़ा महत्व है।इस यज्ञ हेतु शरद ऋतु श्रेष्ठ मानी गई है।
ब्राह्मणों में मर्यादा या स्टेटस का मानक बिस्वा में ऑका जाता है।20 बिस्वा का ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ मान्य है।’लखनऊ के बाजपेयी’ 20 बिस्वा की मर्यादा वाले ही होते हैं।लगता है अकबर ने यहाॅ के हिंदुवों विशेषकर ब्राह्मणों की शक्ति को पहचाना और तभी इस यज्ञ हेतु उदार वित्तीय सहयोग दिया।मुस्लिम लेखकों ने इसे ‘बाजपेयी चढ़ावा’का नाम दिया है।सम्भव है उन्हें ‘यज्ञ’उच्चारण णें दिक्कत हुई हो।
गीता के अनुसार यज्ञ में ब्रह्म प्रतिष्ठित है।तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्(अध्याय-3/15)।ऐसे में लखनऊ को पतंगबाजी और ऐशोइशरत की सरजमी के रूप में न पहचान कर यज्ञभूमि के रूप में मानना श्रेयस्कर होगा।
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