संपादक-शारदा शुक्ला
दुनियाॅ का अकेला यहूदी देश इज़रायल अपने अस्तित्व के संकट से सदा जूझता रहा,किंतु बहादुर और उद्यमशील होने के कारण झुका नहीं।इसका राष्ट्र के रूप में अस्तित्व 1948 हुवा।इसके पहले यहूदी बेचारे उपेक्षित मारे मारे फिरते और यत्र तत्र शरण लेते थे।अंततः वे फिलिस्तीन में इकट्ठा हुए।पहले ब्रिटेन ने इसके अस्तित्व के लिये मदद की और अंततः संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसे राष्ट्र का स्वरूप प्रदान किया।
इसके गठन के समय भारत आजाद हो चुका था और देश में जवाहरलाल नेहरू की सरकार थी।इस सरकार ने इज़रायल के गठन का विरोध किया था तथा विश्व संस्था में इसके खिलाफ वोट किया था।कारण कि इसका जन्मजात विरोध फिलिस्तीन और अरब देशों से है और वहाॅ मुस्लिम आबादी है तथा भारत में मुसलमानों का एक वोट बैक है।इसके अलावा अरबों से ऊर्जा सप्लाई की भारत को दरकार रही तथा विश्व मञ्च पर अन्य समर्थनों की भी उम्मीद।यद्यपि कश्मीर के मसले पर हमें उनका साथ नहीं मिलता रहा।नेहरू ही नहीं,इन्दिरा और राजीव के प्रधानमंत्रित्व काल में भी फिलिस्तीन और वहाॅ के शलाका पुरुष यासर अराफात के कसीदे पढ़े गये और बड़े बड़े सम्मान पुस्कार दिये गये।इंदिरा गाॅधी के कर्यकाल में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हेमवतीनंदन बहुगुणा ने “सुलहेकुल”नाम सेअरबों का सम्मेलन आहूत किया और मुस्लिम जगत में अपनी निजी छवि चमकाने की कोशिश की।मोरारजी देसाई के समय दबे पाॅव इज़रायल से सम्बन्ध बढ़ाने की कोशिश की गई और वहाॅ के रक्षा प्रधान मोशे दयान भारत आये।इसे गुप्त रक्खा गया।बाद में अमेरिका,जो शुरू से इज़रायल का समर्थक रहा,ने चाहा कि यह बात प्रकट हो जाय।तो दयान की इस यात्रा के बारे में सुब्रामणियम स्वामी का बयान दिलवाया गया।उनकी बात आइ गई हो गई और उस सरकार में विदेश मंत्री रहे अटल विहारी बाजपेयी ने ऐसी किसी यात्रा होने का खण्डन कर दिया।तब अमेरिका ने प्रयास किया कि इस तथ्य को किसी ऐसे व्यक्ति से उजागर करवाया जाय,जिसकी बात पर भारत की जनता ध्यान दे।तो मोरारजी देसाई का बयान आया कि ‘मोशे दयान की भारत यात्रा हुई थी और वे बसंत विहार में ठहरे थे’।किस्सा कोताह गैर काॅग्रेसी सरकारों में सम्बन्ध कुछ बढ़े।लालकृष्ण आडवाणी दो बार वहाॅ गये।अटल जी की सरकार में विदेशमत्री जसवंतसिंह वहाॅ भेजे गये।
2017 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वहाॅ की यात्रा की;और फिलिस्तीन नही गये।यह पहला अवसर था जब यहाॅ का कोई प्रधानमंत्री वहाॅ गया हो;और विशेषकर यह कि तत्समय फिलिस्तीन न जाय।हालाॅकि बाद में फिलिस्तीन की अलग से यात्रा की।वर्तमान घटना चक्र में ईरान और फिलिस्तीन समर्थित आतंकवादी संगठन ‘हमास’ने इज़रायल पर जल थल नभ से घुसपैठ करके कई हजार राकेट दागे और बेगुनाह नागरिकों को मारा और कुछ को बन्धक बना लिया।इज़रायल ने भी जवाबी युद्ध छेड़ दिया है।भारत सरकार ने इज़रायल का खुला समर्थन किया है,जो बिलकुल सही कदम है।इज़रायल चीन के मामले में भी हमारा पक्षधर रहता है और हमारी रक्षा जरूरतों की आपूर्ति भी करता है।वह वीर-मित्र है।अरबों ने 1965 और य1971 के भारत पाक युद्धों में हमारा पक्ष नहीं लिया,जब कि इज़रायल ने इन दोनों में हमें रक्षा उपकरण मुहैया करवाये। 1962 के चीनी आक्रमण के समय भी इज़रायल ने रक्षा सामग्री जुटाई।यह काफी हास्यास्पद और निदनीय है कि राहुल गाॅधी की कॅग्रेस इस आतंकवादी कार्यवाही के कर्ता हमास और फिलिस्तीन के साथ खड़ी है।यह एक 80 हजार लड़ाकों वाला उग्रवादी संगठन है।हद है मुस्लिम तुष्टीकरण की।
भारत सरकार को ऐसा ही स्पष्ट रवैया ताइवान के मामले में भी अपनाना चाहिये।र
रघोत्तम शुक्ल
स्तंभकार