कुछ साल पहले तक लखनऊ के चौक बाज़ार में होलसेल में पतंग बेचने वालों की कई दुकानें थीं। अब भी एक दो बची हैं शायद। इन दुकानों पर पतंगों के अलावा मांझा, रील, डोर, सादी (सद्दी) और चर्खियां मिला करती थीं। ख़ास बात यह है कि लखनऊ वाले पतंग उड़ाने को पतंगबाज़ी को कनकव्वे बाज़ी कहते है। यहाँ छोटी पतंग को कनकईया और बड़ी पतंग को कनकव्वा कहते हैं। पैसुलची, बाँची, पौनताई, अद्धी और सवा की तीन को कनकईया का दर्जा प्राप्त है जबकि छै का दस, आड़ा पौनतावा और पौन तावा को कनकव्वे का मक़ाम हासिल है। यह नाम साइज़ के हिसाब से रखे गए हैं।
पतंग बनाने वाले अच्छे कारीगरों को भी यह कलाकार का दर्जा प्राप्त था। इनमें अशफ़ाक़ , शम्भू, बाबू लाल, ज़फ़र, इक़बाल और मूसा की कनकईया और कनकव्वे बहुत मशहूर थे और यह महंगे भी होते थे।
ध्यान रहे कि हर पतंग के चार हिस्से होते हैं। काग़ज़, काँप(कमान टाइप की बांस की तीली) ठड्डा और पत्ता। अगर इनमें से कोई भी चीज़ ग़लत बनी हो तो पतंग बंगरही हो जाती है और उसको कंट्रोल कर पाना मुश्किल हो जाता है। इन पतंगों के अलिफ़िया, मांगदार, आड़ी मांगदार, पट्टीदार चप, हिलाली, तौक़िया, पिट्ठेदार, भेड़ियाली, पेंदीयल और गेंददार जैसे नाम होते हैं। पतंग को डोर से बाँधने के के लिए पहले कन्ने बांधे जाते हैं और जिसको सही से कन्ने बांधना नहीं आते वह कभी बड़ा पतंगबाज़ नहीं बन सकता। कन्नों के साथ माँझे या रील को बाँधा जाता है। इसी को पेंच काटने के लिए इस्तेमाल किया जाता है इस विशेष डोर को रील या मांझा कहा जाता है। किसी ज़माने में बरेली का मांझा बहुत मशहूर था लेकिन चीनी मांझा आने से देसी मंझे की धार कमज़ोर पड़ गई। देसी माँझे की खूबी यह थी कि उससे किसी की गर्दन कभी नहीं कटी लेकिन चीन के बेरहम व्यापारियों ने ऐसा मांझा भारतीय बाज़ारों में उतारा की जिस की धार से कितनों की गर्दनें कट गईं। रील के बाद जो डोर होती है उसको सादी या सद्दी कहा जाता है यह डोर भी काफ़ी मेहनत से बनाई जाती थी। लखनऊ में विक्टोरिया स्ट्रीट पर डोरवाली गली और सुल्तान उल मदारिस के पास वाली फुटपाथ पर डोर सूतने वाले लोग मुसलसल दिखाई पड़ते थे लेकिन जब सद्दी की जगह मिल के सफ़ेद धागे की फिरकी ने ले ली तो डोरवाली गली वीरान हो गई।
पतंग बाज़ी को लखनऊ में एक कला का दर्जा भी हासिल था जो लोग पतंग लड़ाने में माहिर होते थे उनको शहर के पतंगबाज़ बड़ी इज़्ज़त की नज़र से देखते थे, गोमती नदी के किनारे दरिया वाली मस्जिद के सामने के मैदान में (जिस पर बाद में बुद्धा गार्डन बन गया) इतवार और जुमेरात को तीसरे पहर से शाम तक कनकव्वे बाज़ी का मुक़ाबला होता था।
टीमें बनती थीं जो एक दूसरे से कुछ फासले पर खड़ी होती थीं और आस पास जुआरियों की भीड़ जमा होती थी। जब दोनों टीमों की तरफ से एक एक पतंग उड़ कर लोहे वाले पुल के आस पास एक दूसरे को काटने एक लिए बेचैन होती थीं तो जुआरी आवाज़ें लागते थे “आओ सड़क काटे एक पर सवा।” तो दूसरा कहता “दरिया काटे” एक पर दो। इस तरह जुए का भाव तय होता। इस बात पर जुआ होता था कि आज कौन सी टीम सब से ज़्यादा पेंच काटेगी। एक ही पतंग से नौ पतंगे काटने वाले सूरमा को नौशेरवां का ख़िताब दिया जाता था। हमारे बचपन में मुन्ने नवाब का बड़ा नाम था उनके पेंच पर एक पर दस का भाव मिलता था।
सुना है कि पतंग की डोर लूटने के लिए भी ठेका उठाया जाता था जिनके पास ठेका होता था उनके अलावा कोई दूसरा मैदान में डोर नहीं लूट सकता था अलबत्ता पतंग एक लिए ऐसी कोई शर्त नहीं थी। बहुत से लड़के डंडे लिए पतंगों के पीछे दीवानों की तरह दौड़ा करते थे। इनके अलावा कई लोग ऐसे भी थे अपनी पतंग में महीन तार के टुकड़े बाँध कर उड़ाते और कटी पतंगों को लिपटाया करते थे।
कनकव्वे बाज़ी के मैदान मोहल्लों में भी बदे जाते थे। मोहल्ले की ऊँची और बड़ी छतों पर दो टीमों के लोग जमा होते और जम कर पेंच लड़ाये जाते थे। इस को टेस्ट मैच का दर्जा प्राप्त था। इन मैचों के अलावा फ्रेंडली मैच भी होते थे जिनको छत्तम-पाता कहते थे। इसमें कटने वाली पतंग एक दूसरे को वापस कर दी जाती थी।
पतंग बाज़ी का सब से बड़ा मौसम दशहरे से ले कर दीवाली तक रहता था । दीवाली के आख़िरी दिन तो लखनऊ में पतंग बाज़ी का पूरा त्यौहार होता था जिसको जमघट कहा जाता था । जमघट में आसमान पर हर तरफ़ पतंगों का जमघट नज़र आता था । ख़ास बात यह है की हिन्दू और मुसलमान मिल कर इस रंगारंग भारतीय त्यौहार को मनाते थे अब भी शायद ऐसा ही है।
पतंग बाज़ी के साथ कुछ दिलचस्प अलफ़ाज़ भी जुड़े हुए है जैसे कि लंगड़,तिकलला,पेटा, गद्दा, ढिल्लम, बंगरही, सुर्रा और बौंडियल हवा।
शकील हसन शम्सी
वरिष्ठ पत्रकार