लखनऊ की कहानी हो और बाँकों की बात न हो यह सरासर न इंसाफ़ी होगी क्योंकि बाँकों के क़िस्से लखनऊ में हमेशा से बहुत मशहूर रहे हैं।
बांका लफ़्ज़ में ही अजीब सा बांकपन है, लखनऊ में जब कोई किसी से अकड़ता है तो सामने वाला कहता है “बहुत अकड़ रहे हो कहीं के बांके हो क्या ?”
बाँके का शब्द मथुरा वृंदावन में तो काफ़ी सुनाई देता है क्योंकि कृष्ण जी को लोग मोहब्बत से बाँके बिहारी कहते हैं, लेकिन लखनऊ के बाँकों को उस लफ्ज़ से दूर दूर का भी कोई वास्ता नहीं है। उर्दू की डिक्शनरी में बाँका शब्द के कई अर्थ दिए गए हैं, जैसे कि टेढ़ा, तिरछा, अकड़बाज़, छैला, अलबेला, वह आदमी जो अपनी टोपी या पगड़ी तिरछी रखे, वज़ादार, लुंगारा, शोहदा, शोख़, शरीर, निर्भीक, दिलेर, वीर और निडर।
लेकिन लखनऊ के बाँकों पर इनमें से कोई शब्द भी एक दम सटीक नहीं बैठता, क्योंकि लखनवी बांके कड़ी सर्दी में भी चिकन का महीन कुर्ता पहने, उस पर पानी छिड़कते, कलाई में गजरा बांधे,कानों में इत्र की फुरैरी लगाए , कमर में क़रौली सजाए और सीना फुलाये जिधर से गुज़रते थे तो उधर के राहगीरों की आँखें बाँके मियां की तरफ़ उठ जाती थीं। आम ज़िंदगी में तो बाँके “पहले आप पहले आप कहने पर यक़ीन रखते थे, लेकिन अगर बात आत्म सम्मान की आ जाए तो अपनी जान देने से भी पीछे नहीं हटते थे।
ख़ास बात यह है कि लखनऊ में बाँकों के क़िस्से बहुत मशहूर हैं लेकिन हिस्ट्री में इनका ज़िक्र कहीं नहीं मिलता यहां तक कि मौलाना अब्दुल हलीम शरर ने भी अपने किताब “गुज़श्ता लखनऊ” में इनका कोई ज़िक्र नहीं किया था लेकिन बाद में मौलाना शरर ने दिलगुदाज़ अख़बार में बाँकों के बारे में एक आर्टिकल लिखा था जिसमें बाँको कई क़िस्से लिखे थे। शरर का मानना था कि बाँके ऐसे लोग हुआ करते थे जो देश के लिए मरने मारने को हमेशा तैयार रहते थे। शरर साहिब ने बाँकों को क़ौमी सिपाही ( राष्ट्र प्रहरी) कह कर भी सम्बोधित किया है। शरर साहब ने लिखा है की बाँके हर समय हथियार सजाये रहते थे और बड़े निडर होते थे। उन्होंने लिखा है कि हर बाँके का रंग ढंग और स्टाइल अलग हुआ करता था कोई गुददी से पीछे के बालों पर चंदिया तक उस्तुरा चलवा लेता, कोई मूंछें इतनी बड़ी कर लेता कि कानों के भी पार निकल जातीं, कोई पायजामा इतना ऊँचा रखता की पिंडली दिखाई देती तो कोई इतना लम्बा रखता कि पायंचे ज़मीन पर लोटते जाते थे। कोई बाँका हाथ में खुली हुई दो धारी तलवार लेकर निकलता तो कोई भारी सी गदा उठा कर चलता और अगर कोई इनको देख कर इनका मज़ाक़ उड़ाता तो फौरन उस को रोक कर कहते आइए हम में और आप में दो दो हाथ हो जाएं। मौलाना शरर ने एक दिलचस्प क़िस्सा भी लिखा है। आप भी सुनिए ….. नवाब सआदत अली खां के ज़माने में एक बहुत महशूर बाकें थे जिनका नाम मिर्ज़ा जहांगीर बेग था वह नवाब के एक दरबारी के बेटे थे। जहांगीर बेग आये दिन किसी न किसी से मार पीट किया करते थे रोज़ नवाब के पास शिकायतें आती थीं। एक दिन नवाब ने जहांगीर बेग के वालिद से कहा कि अपने बेटे को समझाईए वरना मैं उनकी नाक कटवा कर शहर भर में गुमाऊँगा। जहांगीर बेग के पिता को दरबार में होने वाली बे इज़्ज़ती का बहुत बहुत दुःख हुआ। घर में आकर बीवी से बता ही रहे थे की दरबार में क्या गुज़री कि जहाँगीर बेग भी घर में आ गए। जब उन्होंने सुना की नवाब ने सकहा है कि वह नाक कटवा देंगे तो झट से अपनी क़रौली निकाली और अपनी नाक काट कर अपने वालिद के हाथ में रख दी और कहा जाइए नवाब को दे दीजिये। नवाब को जब यह बात पता चली तो उनको बहुत ग़म हुआ कहने लगे कि मैं ने तो इस लिए कहा था कि शायद वो सुधर जाएँ। मौलाना शरर ने एक आखिरी बांके का ज़िक्र भी किया है जो वाजिद अली शाह के साथ कोलकाता के मटिया बुर्ज इलाक़े में रहते थे नवाब ने उनसे कहा था कि अब नवाबी ख़त्म हो गई तो आप भी बांका बनने के बजाय आम आदमी की रहना शुरू करें।
ऐसा लगता है कि अंग्रेज़ों के साथ होने वाले युद्ध में सैंकड़ों बांके मारे गए और बाद में जो रह गए वह सब उस तरह के बांके नहीं थे जो देश पर जान देने को तैयार रहते थे। अंग्रेज़ों के समय में जो बांके रह गए थे उनकी ज़िंदगी का रुख़ इश्क़ ओ आशिक़ी की तरफ़ मुड़ गया था। बांके का मतलब एक सर फिरे आशिक़ का जैसा हो गया था।
हम ने बाँकों को कभी उनके असली रूप में नहीं देखा लेकिन जब हम 1976 में बी ए कर रहे थे, तो हमारा कालेज शाम की शिफ़्ट में लगता था, पास में ही पान की दुकान पर जब हम सिगरेट पीने जाते थे तो एक बुज़ुर्ग मिला करते थे जिनको लोग राजा बांके कहा करते थे। उनसे कभी कभी दुआ सलाम हो जाती थी तो उनसे जो बातें मालूम होती थीं उनको सुन कर लगता था कि उनकी जवानी चौक में गुज़री थी और वह और कुछ दूसरे बाँके तवायफ़ों के कोठों के आस पास ही घूमते थे, उनका कहना था कि हर बाँके का ठिकाना पांच छै कोठों तक सीमित होता था और अगर कोई शराबी, बदमाश या मुस्टंडा किसी कोठे पर हंगामा मचाता था, या तवायफ़ों को डराता धमकाता था तो उसको क़ाबू में करने का काम वह बड़ी हिम्मत से निभाते थे। मुझे लगता है अंग्रज़ों के युग में बाँकों रोल वैसा ही हो गया था जैसा कि आज कल होटलों, क्लबों और शराबख़ानों में बाऊंसर का होता है।
शकील हसन शम्सी
वरिष्ठ पत्रकार
3 comments
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