चाहे हिजाब विवाद हो या कोई अन्य चुनावी प्रचार का हथकण्डा,वर्तमान समय में साम्प्रदायिक भेदभाव पहले से ज्यादा है।लगता है वोट पाने के लिये इसे चौड़ा किया जाता है।इस उपक्रम में कोई किसी से कम नहीं है;वर्ना कम से कम लखनऊ में तो पुराने समय में भेदभाव कम और भाईचारा ज्यादा था।नवाबी काल में शासक मुसलमान थे।वे चाहते तो हिंदू त्यौहारों,संस्कृति और रीति रिवाज़ों के प्रति कट्टरता दिखा सकते थे और उनमें क्षरण करते,किंतु था इसके उलट।पारस्परिक सौहार्द्र बेहतर धा,जिसका प्रतिविम्ब त्यौहारों पर भी था।होली को ही ले लीजिये,जो हिंदुवों के दो बड़े त्यौहारों में से एक है।इसे नवाब लोग न केवल व्यक्तिगत स्तर पर मनाते थे,बल्कि सरकारी तौर भी इसे उत्सव का रूप देते थे।इसमें लाखों रुपया सरकारी खजाने से खर्च किया जाता था।सआदत अली खाॅ और आसिफुद्दौला के समय में तो इसमें विशेष वृद्धि और उत्साह था।नवाब खुद भी होली खेलते थे।शयर मीर तकी ने आसिफॢउद्दौला के होली खेलने का वर्णन किया है:-
होली खेला आसिफउद्दौला वज़ीर।
रंग सोहबत से अजब है खुर्द व पीर।।
इसका प्रभाव जनता पर भी पड़ता था।दोनों सम्प्रदायों के लोग परस्पर मिलते और होलिका दहन के अगले दिन ‘धुरेंडी’को रंग गुलाल प्रक्षेपण करते।विभिन्न प्रकार के स्वाॅग तमाशे आयोजित होते थे।दरबार में महौल रंगारंग होता था।प्रतियोगिताएं सम्पन्न होती थीं।समारोह में पुरस्कार वितरित किये जाते थे।कलाकारों और तवायफों तक को नकदी और ज़ेवरात के रूप में इनाम दिये जाते थे।सायंकाल घरों में लोग चिराग जलाते और आतिशबाजी छुड़ाते थे।इस तरह इसे होली दिवाली का मिश्रित रूप दे देते थे।
सल्तनत के आखिरी बादशाह वाजिदअलीशाह तो ‘रहस’ और कृष्णलीला भी करवाते थे,जिसमैं श्रीकृष्ण को रोल वे स्वयं करते थे तथा पर्दानशीन सुंदरियाॅ भी गोपिकाएं बनकर बादशाह का सानिध्य प्राप्त कर लेती थीं।
ऐसा था दो भिन्न संस्कृतियों का आमेलन और अंगीकरण!
——रघोत्तम शुक्ल
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