पुराने लखनऊ के चौक बाज़ार को किसी ज़माने में बाज़ार ए हुस्न का दर्जा हासिल था। सड़क के दोनों तरफ बनी अधिकतर दुकानों के ऊपर तवायफ़ों के कोठे थे। इसलिए चौक की बात करते वक़्त इस पहलु की अनदेखी करना मुमकिन नहीं। किसी ज़माने में दुकानें बंद होने के बाद चौक जाग पड़ता था। बड़े बड़े रईस, नवाबज़ादे और अय्याश अमीर चौक में बग्घियों, पालकियों और तांगों के ज़रिये पहुँचने लगते थे। कोठों के नीचे खड़े दलाल उनका ख़ैर मक़दम(स्वागत) करने के लिए खड़े रहते थे।मैं ने लोगों से सुना है कि यह दलाल चौक में आने वालों नए लोगों को अपने कोठे की तवायफ़ की ख़ूबियाँ बताते उसके हुस्न, उसकी अदाओं और उसकी दिलकश आवाज़ के बारे में बढ़ा चढ़ा कर बताते थे और इस तरह उनको अपने कोठे पर चढ़ा देते थे।
सच तो यह है की औरतों को नाचते गाते देखना हिन्दोस्तानी मर्दों का बहुत पुराना शौक़ है और लखनऊ भी इस से अछूता नहीं रहा। लखनऊ में लड़कियों और महिलाओं के उत्पीड़न और शोषण को तहज़ीब का हिस्सा बना दिया गया था। कोठा चलाने वाली महिलाएं जिनको नायिका कहा जाता था बड़े फ़ख्र से कहती थीं कि शरीफ़ज़ादे उनके कोठे पर नशिस्त ओ बर्ख़ास्त ( उच्च सोसाइटी में उठने बैठने) के अदब सीखने आते हैं। हमारे बचपन में कुछ कोठे बाक़ी थे। उस ज़माने में हम लोगों को शाम के वक़्त चौक में क़दम रखने से भी हमारे घर वालों ने मना किया हुआ था। अलबत्ता दिन के वक़्त हम चौक में आ जा सकते थे। अक्सर सुबह के वक़्त जब उधर से गुज़र होता था तो घुंघरू, हारमोनियम और तबले की अव्वाज़ें कई कोठों से आती हुई सुनाई पड़ती थीं। कहा जाता था कि सुबह का वक़्त रियाज़ का होता है और उस्ताद साहिबान तवायफ़ों को ट्रेनिंग देने आते थे।
यहां पर एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाते चलें। एक लल्लू मियां थे (बदला हुआ नाम) उनको मोहल्ले के लड़के यह कह कर चिढ़ाते थे कि वह चौक में तवायफ़ों के पैर दबाते हैं। एक बार हम ने उनको चाय पिलाई और अलग ले जाकर पूछा कि लड़के आप को क्यों चिढ़ाते हैं तो बहुत नर्मी से बोले ” लड़कियां देर रात तक नाचती गाती थीं, सुबह सवेरे रियाज़ में इतना थकती थीं कि अक्सर पैरों में सूजन आ जाती थी ऐसे में अगर कोई उनके पैर दबा दे तो यह बुरा काम था यह नेक काम ?” वैसे लल्लू मियां का अस्ल काम तवायफ़ों के घर का सौदा सुलफ़ लाने का था क्योंकि तवायफ़ें अपने घरों से निकलती नहीं थीं और अगर निकलती भी थीं तो बुर्क़ा पहन कर निकलती थीं ताकि राह में कोई पहचाने नहीं।
तवायफ़ों को अक्सर बड़े बड़े अमीरों और नवाबों के घरों में शादियों या दूसरी महफ़िलों में नाचने गाने के लिए बुलाया जाता था। एक अहम बात यह थी की शरीफ़ घरानों की औरतें तवायफ़ों से पर्दा करती थीं। हमारी जवानी आते आते चौक से कोठे ख़त्म हो चुके थे, लेकिन एक्का दुक्का तवायफ़ें बाक़ी रह गई थीं, जिनको बड़ी बड़ी महफ़िलों में बुलाया जाता था। ख़ास बात यह है की औरतें जिस्म-फ़रोश नहीं होती थीं। जिस्म-फ़रोश महिलाओं का बाज़ार अकबरी गेट से बाहर निकलने के बाद सड़क पार करके चावल वाली गली के कोठों में था।
अगले अंक में हम लखनऊ के बाँकों के बारे में बात करेंगे।
शकील हसन शम्सीव
वरिष्ठ पत्रकार
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