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मुस्कुराइए कि ये लखनऊ है : लखनऊ का अकबरी दरवाज़ा

कनकव्वे बाज़ी के बाद हम एक बार फिर से चौक की तरफ वापस आते हैं। चौक में पतंग की दुकानों के बाद लचके गोटे की कई दुकानें थीं और मियां तहसीन की मस्जिद के दरवाज़े के सामने हलवे की एक मशहूर दुकान थी (जिसका नाम मुझे याद नहीं रहा) वहां जौज़ी हलवा, हब्शी हलवा, दूधिया हलवा और पपड़ी हलवा सोहन बहुत मज़े का होता था और दूर दूर से लोग वहां हलवा खरीदने आते थे। कुछ दुकानों के बाद सय्यद हलवाई की मशहूर दुकान थी और उसी दुकान से मिली हुई टुंडे कबाबी की दुकान थी। सय्यद हलवाई की दुकान एक ज़माने में इतना चलती थी कि उनके लड़के की बारात हाथी पर शहाना अंदाज़ में निकली थी। बाद में पता नहीं क्या हुआ कि उनके बच्चों ने हलवाई की दुकान ख़त्म करके चिकन का लिबास बेचना शुरू कर दिया।
टुंडे की दुकान से आगे बढ़ कर चांदी के वरक़ बनाने वालों की दुकानें थी और फिर आरी ज़रदोज़ी का काम करने वालों को सोने और चांदी की तार, सलमा सितारा और मुक़्क़ैश बेचने वालों की दुकानें थीं। उसके बाद अकबरी दरवाज़े आता है जिसके दोनों हिस्सों में प्रजापति की खिलौनों की दुकानें थीं जहाँ मिटटी के बहुत खूबसूरत खिलौने और मूर्तियां मिला करती थीं।
जैसा की हम पहले लिख चुके हैं कि इतिहासकार अली सरवर ने लिखा है कि अकबर ने लखन नाऊ नाम के एक डाकू को ज़िंदा चुनवा कर अकबरी दरवाज़ बनवाया था लेकिन इतिहास की किताबों में इस का कोई सुबूत नहीं मिलता। कुछ भी हो अकबरी दरवाजा 1556 से 1605 के बीच अकबर के अवध के सूबेदार जवाहर ख़ान ने बनवाया था और इसको रूमी गेट बनने से पहले तक लखनऊ की पहचान समझा जाता था। अफ़सोस कि अब इसकी हालत बहुत जर्जर है और कोई देखने वाला नहीं।
किसी ज़माने में लखनऊ आने वाले टूरिस्ट के लिए अकबरी दरवाज़े के खिलौने बहुत कशिश रखते थे। अब तो हमारे मुल्क में मिटटी के खिलौनों की पूरी इंडस्ट्री मिटटी में मिल चुकी है और चाहे ईद का मेला हो या दीवाली का मेला ढूंढ़ने से भी मिटटी की खिलौने नहीं मिलते और अगर मिल भी जाएँ तो बच्चों को उनमें दिलचस्पी नहीं होती है।


प्रजापति की दुकान से ज़रा आगे बढ़ कर रंग और गुलाल बेचने वालों की दुकानें थीं, जहां पुलाओ ज़र्दा और बिरयानी के चावलों को पीला रंगने के लिए गाय छाप रंग मिला करता था (कहा जाता था कि यह रंग खाने के क़ाबिल है) उन दिनों घरों में कपड़े रंगने का बहुत रिवाज था और नए कपड़े ख़रीदना हर त्यौहार में मुमकिन नहीं होता था इस लिए भी इन दुकानों पर अक्सर हम को आना पड़ता था ख़ास तौर पर मोहर्रम शुरू होने से पहले काला रंग और मोहर्रम ख़त्म होने के बाद लाल रंग ख़रीदने और होली और नवरोज़ में गुलाल और तरह तरह के रंग ख़रीदने के लिए हम लोग आया करते थे। चौक बाज़ार की आखिरी दुकान भगत पंसारी की थी। अमीनाबाद के माताबदल पंसारी के बाद भगत पंसारी की दुकान सब से ज़्यादा क़ाबिल ए भरोसा थी। ख़ुदा का शुक्र है कि अभी तक चौक में पुरानी तहज़ीब के कुछ नमूने बाक़ी हैं हालांकि बाइक कल्चर ने वहां के सुकून को छीन लिया है और मोटर साइकिल के हार्न कानों के लिए मुसीबत बन गए हैं। चौक बाज़ार की एक बड़ी ख़ासियत यह है कि वहां एक भी शराब की दुकान नहीं है। सुना है कि किसी ज़माने में वहां चंडूख़ाने हुआ करते थे जहाँ अफ़वाहें जन्म लेती थीं और ख़बरें बनाई जाती थीं । इनकी शोहरत इतनी थी कि अब तक कोई उलटी सीधी खबर सुनाता है तो लोग कहते हैं कहाँ चंडूख़ाने की उड़ा रहे हो। मैंने चन्डूख़ाने तो नहीं देखे अलबत्ता चंडू पीने वाली एक 80 वर्ष की औरत को अपने बचपन में देखा था । हम सब उनको नन्ही अम्माँ कहते थे, वह हमारे घर में जवानी के दिनों में काम करती थीं लेकिन बूढ़ी हो जाने के बाद वह काम काज के क़ाबिल नहीं थीं फिर भी उनका खाना पीना और रहना हमारे घर में ही था। वह हमारी दादी के मकान की ड्योढ़ी में रहती थीं और दिन में कई बार चंडू फूंकती थीं। चंडू एक क़िस्म की छोटी सी मिटटी की चिलम होती थी इसको सेठे की एक नलकी से जोड़ा जाता था। चिलम में एक छोटा सा छेद होता था जिस पर अफ़ीम की एक छोटी से गोली रख कर उसको एक अंगारे से जला कर धुआँ खींचा जाता था। चौक की बात ख़त्म करने के बाद अगले हिस्से में हम विक्टोरिया स्ट्रीट की बात करेंगे ।

शकील हसन शमसी

वरिष्ठ पत्रकार

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