सम्पादक – शारदा शुक्ला
भारतीय श्राद्ध और पिण्डदान पद्धति पूर्णतया विज्ञान सम्मत है;बस अंतर यह है कि यह परा विज्ञान है,जिसे प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं किया जा सकता।यह श्रद्धा और विश्वास का विषय है।बस होना शास्त्र सम्मत चाहिये।बड़ों बड़ों ने इसकी महत्ता को स्वीकारा।नारद पुराण के अनुसार भगवान राम ने अपने पिता दशरथ का श्राद्ध गया में रुद्रपद पर किया था।वे जब पिण्डदान को तत्पर हुए तो दशरथ स्वयं प्रकट हो गये और हाथों में ग्रहण करना चाहा।राम ने कुछ क्षण सोचा और पिण्ड पिता के हाथ में न देकर उसे भूमि पर कुशों पर ही रख कर अर्पण कर दिया,जैसा कि शास्त्रोक्त विधान है।महाराज दशरथ बहुत प्रसन्न हुए और कहा कि ‘मैं तुम्हारे शास्त्र पालन से बहुत तृप्त हुवा और इस विधि से ही मुझे यह अर्पण प्राप्त हो गया है और मेरी तुष्टि हो गई है।मैं आशिष देता हूॅ कि तुम पृथ्वी पर विपुल वर्ष तक अखण्ड राज्य करो”‘
ऐसा ही वृत्तांत महाभारत में भीष्म के लिये आया है।वे गया में विष्णु पद पर अपने पिता शांतनु का श्राद्ध कर रहे थे,तो पिण्ड प्राप्त करने हेतु शाॅतनु का हाथ प्रकट हो गया।भीष्म ने वह हाथ पहचाना।वह वही बाजूबंद धारण किये था,जो पिता श्री जीवन काल में पहनते थे।वे भावुक हुए,किंतु पिण्ड हाथ में न देकर कुशों पर ही रख दिया।इससे शांतनु की आत्मा तृप्त हुई और उन्हें शास्त्र विधि अपनाने हेतु सराहा।अंततः संतुष्ट और तृप्त हुए पिता ने उन्हें विष्णु पद प्राप्त होने का आशीर्वाद दिया।
एक विदेशी आत्मा से जब प्लेनचेट पर संपर्क साधा गया,तो उसने बताया कि’हम इस समय एक अत्यंत ज्वलनशील स्थान पर हैं,जिसे पार करना बड़ा कष्टमय है,किंतु हिंदू आत्माएं यह स्थान आसानी से पार कर रही हैं,क्योंकि उनके परिजन कुछ गोल गोल खाद्य पदार्थ उन्हें पृथ्वी पर भेंट कर रहे हैं।
विधि विधान से किया गया श्राद्ध विज्ञान है,सत्य है और सर्वतोमुखी कल्याण का विस्तार करने वाला होता है।मार्कण्डेय पुराण में लिखा है–
न तत्र वीराःजायंते नारोग्यं न शतायुषः।
न च श्रेयोऽधिगच्छन्ति यत्र श्राद्धं विवर्जितम।।-
रघोत्तम शुक्ल
स्तंभकार
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